एक सच्ची सीख-विजय सिंह नीलकण्ठ

एक सच्ची सीख

चल पड़े अनजान पथ
यह सोच न राही मिलेंगे
बस था यही विश्वास कि
केवल अकेले हीं चलेंगे।

निहारता खग वृक्ष को
सुनसान पथ पर चल पड़े थे
कुछेक पल के बाद ही
अनेक पथिक आगे खड़े थे।

देख मन हर्षित हुआ
अरे वाह था ऐसा नजारा
उन्मत हुआ मन देख यह
था जो पहले एक बेचारा।

पर अरे यह क्या सभी ने
पीठ दिखलाना शुरू की
बीच में दो चार हीं बस
लग रहे सच्चे पथिक थे।

विह्वल हुआ यह सोच कि
न पहुंच पाऊंगा ठिकाना
देखकर दो चार भी
करने लगे कोई बहाना।

याद आए वे पथिक
पहले सहारा भी दिया था
फिर किया वंदन उसी का
कर को पकड़ साहस दिया था।

दौड़कर आए वही
ले थाल में भड़कर खजाना
खिल उठा चेहरा पुनः
मिल ही गया मेरा ठिकाना।

नीलकण्ठ कहता सभी से
सतर्क रहना है सदा
न कर भरोसा कि सभी
दूर कर देंगे विपदा।

ऐसों से न मदद मिलेगी
बस केवल मिलेगी भीख
ऐ मेरे प्यारे दोस्तों
बस यही है बस यही है
बस यही है एक सच्ची सीख।

विजय सिंह नीलकण्ठ